संसाधन एवं विकास
संसाधन के प्रकार –
- उत्पत्ति के आधार पर – जैव और अजैव
- समाप्यता के आधार पर – नवीकरण योग्य और अनवीकरण योग्य
- स्वामित्व आधार पर – व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय
- विकास के आधार पर – संभावी, विकसित, भंडार और संचित कोष
रियो डी जेनेरो पृथ्वी सम्मलेन कब हुआ ?
- 1992 ई में
- 100 देशों ने भाग लिया
- देश – ब्राजील में
- सतत पोषणीय विकास के लिए एजेण्डा 21 की स्वीकृति
सतत पोषणीय विकास
- इसका अर्थ है कि हम संसाधनों को उपयोग पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए करे ताकि आने वाली पीढ़ी की आवश्यकताओं की भी पूर्ती हो सके |
- इसकी संकल्पना ब्रूडटलैंड आयोग रिपोर्ट द्वारा 1987 में दी गई |
- यह रिपोर्ट बाद में हमारा कॉमन फ्यूचर के नाम से प्रकाशित हुई
कोयला और खनिजों के प्रचुर भंडार वाले राज्य
- झारखण्ड, मध्यप्रदेश, और छत्तीसगढ़
जल संसाधन से प्रचुर भंडार वाले राज्य
- अरुणाचल प्रदेश
पवन और सौर उर्जा संसाधन से प्रचुर भंडार वाले राज्य
- राजस्थान
प्रकृति के पास हर व्यक्ति की आवश्यकता की पूर्ति के लिए बहुत कुछ है, लेकिन किसी के लालच के संतुष्टि के लिए नहीं
- यह कथन महात्मा गाँधी का है
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संसाधन संरक्षण की वकालत
- क्लब ऑफ़ रोम ने 1968 में की
- स्माल इज ब्यूटीफुल – शुमसेर की पुस्तक
भू संसाधन में क्षेत्रों का प्रतिशत
- मैदान – 43%
- पर्वत – 30%
- पठार – 27%
भूमि- उपयोग के आंकड़े
- भारत का क्षेत्रफल 32.8 लाख (32,87,263) वर्ग किमी है , परन्तु 93 प्रतिशत भाग के ही भू-उपयोग के आकड़े उपलब्ध है |
- 7 % भाग – ( असम को छोड़कर अन्य प्रान्त, जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान और चीन अधिकृत क्षेत्र)
- कुल सूचित क्षेत्र के 54% भागों पर खेती हो सकती है |
- सबसे अधिक खेती क्षेत्र का प्रतिशत पंजाब और हरियाणा (80%)
- अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, मणिपुर और अंडमान निकोबार- 10% से भी कम क्षेत्र में खेती
राष्ट्रीय वन नीति 1952 द्वारा निर्धारित वनों का आदर्श क्षेत्र
- 33 % (होना चाहिए) जबकि इससे बहुत कम है
भूमि निम्नीकरण के कारण
- वनोंन्मूलन (उड़ीसा)
- अति पशुचारण (गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश)
- खनन (झारखण्ड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और उड़ीसा)
- अनुचित सिंचाई (पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश)
मृदा बनने की प्रक्रिया के कारक
- उच्चावच
- जनक शैल अथवा संस्तर शैल
- जलवायु
- वनस्पति और अन्य जैव पदार्थ
- समय
भारत में सबसे अधिक पायी जाने वाली मृदा
जलोढ़
- बांगर (पुरानी जलोढ़), खादर (नयी जलोढ़)
- बांगर में मोटे कण , खादर में महीन कण
- जलोढ़ मृदा पोटाश, फास्फोरस और चुनायुक्त होती है
- सूखे क्षेत्रों की मृदा अधिक क्षारीय होती है (कम उपजाऊ)
काली मृदा
- उपनाम रेगर मृदा
- कपास की खेती के लिए उपयुक्त
- जलवायु और जनक शैलों के कारण निर्माण
- नमी धारण करने की क्षमता – बहुत अधिक
- महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, मालवा, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पठार पर
लाल और पीली मृदा
- लाल रंग लौह धातु के कारण (रवेदार और आग्नेय चट्टानों में)
- पीला रंग जलयोजन के कारन
- ओडिशा, छत्तीसगढ़, मध्य गंगा के दक्षिणी छोर पर और पश्चिमी घाट में पहाड़ी पद उपलब्ध
- इस मृदा का विकास दक्कन पठार के पूर्वी और दक्षिणी हिस्सों में हुआ है
लेटेराईट मृदा
- यह अधिक गहरी और अम्लीय होती है (pH < 6.0)
- पौधों के पोषक तत्वों की कमी
- दक्षिणी राज्यों , महाराष्ट्र के पश्चिमी घाट क्षेत्रों, ओडिशा, पश्चिम बंगाल के कुछ भागों में पाई जाती है
- मृदा संरक्षण की उचित तकनीक अपनाकर कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में चाय और कॉफ़ी उगाई जाती है
- तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, और केरल में काजू की खेती
मरुस्मृथली मृदा
- ये लवणीय होती है
- मृदा की सतह के नीचे कैल्शियम की मात्रा अधिक होने के काराव चूने के कंकड़ की सतह
- इस कारण अन्तः स्यंदन (Infiltration) अवरुद्ध हो जाता है
मृदा अपरदन से जो भूमि जोतने योग्य नहीं रहती उसे
- उत्खात भूमि कहते है
- चम्बल बेसिन में (खड्ड भूमि ) कहा जाता है
समोच्च जुताई
- ढाल वाली भूमि पर समोच्च रेखाओं के सामानांतर हल चलाना
- ढाल वाली भूमि पर सोपान (सीढ़ीदार) बनाये जाते हैं
- ढाल वाली भूमि पर फसलों के बीच में घास की पट्टियाँ उगाई जाती है जिसे पट्टी कृषि कहते हैं |